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ओप्पिलिअप्पन मन्दिर

ओप्पिलिअप्पन मन्दिर, दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के कुम्भकोणम जिले के थिरुनागेश्वरम के पास स्थित श्री नारायणन मन्दिर है। ओप्पिलिअप्पन मन्दिर, भगवान विष्णु को समर्पित १०८ दिव्य देशमों में से ६०वां दिव्य देशम है। ओप्पिलिअप्पन मन्दिर, जिसे थिरुविननगर या उप्प्लियप्पन के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के पीठासीन देवता भगवान विष्णु को उप्पिलिअप्पन पेरुमल और उनकी पत्नी भगवती लक्ष्मी को भूमि देवी के रूप में पूजा जाता है। चूँकि ये स्थान भगवान श्री हरी नारायण से सम्बन्धित है, इसलिए इस क्षेत्र का प्राचीन ग्रंथो में वैकुण्ठ नगरम, तुलसी वनम या मार्कंडेय क्षेत्रम के नाम से भी उल्लेख मिलता है।


ओप्पिलिअप्पन मन्दिर
उप्पिलिअप्पन पेरुमल और भगवती भूमि देवी

ओप्पिलिअप्पन मन्दिर से जुड़ी दंतकथा 

मन्दिर से जुडी कई किवदंती है जिनमें से प्रमुख कुछ इस प्रकार है - 

एक बार देवी तुलसी ने तपस्या की और उन्हें अपने ह्र्दय में देवी लक्ष्मी की ही तरह स्थान देने का वरदान माँगा। भगवान नारायण ने कहा देवी लक्ष्मी ने कठोर तप के बाद यह स्थान प्राप्त किया है और वे देवी भूमि के रूप में धरती पर कावेरी तट पर अवतरित होने वाली है अतः आप वहां पर पौधे के रूप में उनके सामने प्रकट होये। 

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धरती पर जब देवी लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ तो देवी तुलसी पर उनकी छाया पड़ने से भगवान नारायण ने उन्हें एक विशेष स्थान प्रदान किया। इसलिए ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति भगवान श्री हरि नारायण की तुलसी पत्रों द्वारा प्रेम भाव पूजा करता है, उसे अश्वमेघ यज्ञ करने के फल की प्राप्ति होती है। 

दूसरी कथा के अनुसार, ॠषि मुकुन्द के पुत्र मार्कंडेय ने तप कर भगवान विष्णु से उन्हें अपने जमाता रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया। उनके इस वरदान को सिद्ध करने के लिए देवी भगवती लक्ष्मी को पुत्री रूप में तुलसी के वृक्ष के नीचे जन्म लिया, जहां मुनि मार्कंडेय पूजा कर रहे थे। धीरे धीरे समय का चक्र चलता रहा और कन्या ने युवावस्था में अपने चरण रखें। भगवान विष्णु अपना रूप बदल कर पंगुनि माह में ॠषि से मिले और उनसे उनकी कन्या का हाथ माँगा। ॠषि मार्कंडेय ने उत्तर दिया की उनकी पुत्री अभी छोटी है और उसे तो अभी तक भोजन भी उचित मात्रा में नमक के साथ बनाना नहीं आता। जिस पर रूप बदले भगवान नारायण ने उनकी पुत्री और उसके द्वारा बिना नमक का बनाया भोजन स्वीकार है करने का वचन दिया, परन्तु ॠषि तैयार नहीं हुए। बाद में उन्हें अपने दिव्य ज्ञान से उस पुरुष के वास्तविक रूप का ज्ञान हो आया, तब श्री हरी ने उन्हें अपने वास्तविक

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रूप में दर्शन प्रदान कर देवी लक्ष्मी का कनिकाथानम (परिग्रहण) किया। चूँकि भगवान ने कहा था वे उस भोजन को स्वीकार करेंगे। इसलिए मन्दिर में अर्पित किया जाने वाला नैवेद्यम आज तक हमेशा बिना नमक के बनाया व चढ़ाया जाता है। ओप्पिलिअप्पन (उप्पू इल्ला अप्पन) नाम इसी किंवदन्ती के परिणाम रूप है। और उसे तो अभी तक भोजन भी उचित मात्रा में नमक के साथ बनाना नहीं आता। जिस पर रूप बदले भगवान नारायण ने उनकी पुत्री और उसके द्वारा बिना नमक का बनाया भोजन स्वीकार है करने का वचन दिया, परन्तु ॠषि तैयार नहीं हुए। बाद में उन्हें अपने दिव्य ज्ञान से उस पुरुष के वास्तविक रूप का ज्ञान हो आया, तब श्री हरी ने उन्हें अपने वास्तविक रूप में दर्शन प्रदान कर देवी लक्ष्मी का कनिकाथानम (परिग्रहण) किया। चूँकि भगवान ने कहा था वे उस भोजन को स्वीकार करेंगे। इसलिए मन्दिर में अर्पित किया जाने वाला नैवेद्यम आज तक हमेशा बिना नमक के बनाया व चढ़ाया जाता है। ओप्पिलिअप्पन (उप्पू इल्ला अप्पन) नाम इसी किंवदन्ती के परिणाम रूप है। 

 

ओप्पिलिअप्पन मन्दिर की वास्तुशैली 

मन्दिर का निर्माण ८वी शताब्दी ईस्वी में मध्यकालीन चोल शासन के दौरान प्रारम्भ होकर तंजावुर नायकों के शासनकाल में पूर्ण हुआ था। मन्दिर परिसर में उपलब्ध शिलालेखों से इसके वास्तविक इतिहास का ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। मन्दिर में एक पांचस्तरीय राजगोपुरम (प्रवेश द्वार) है, जो की ग्रेनाइट की दीवार के भीतर स्थित है। मन्दिर से जुड़े अन्य सभी मन्दिर और जलकुण्ड परिसर के भीतर ही है। सहस्रधारी थाली और कुडम (जलपात्र) जिनसे पीठासीन देवता को थिरुमंजनम (स्न्नान) कराया जाता है, स्वर्ण से बने हुए है। मन्दिर परिसर में भूमिदेवी, श्री हनुमान जी, ॠषि मार्कंडेय, अलवर, श्री राम, नृत्य कृष्ण, मणिप्पन, एन्नप्पन और गरुण के सुन्दर मन्दिर हैं। परिसर में इनके अतिरिक्त दो हॉल, जिनमे से पश्चिमी हॉल का प्रयोग मन्दिर के पर्वोत्सवों में देवताओं के विश्राम कक्ष के रूप में होता है, पांच कमरों वाला एक गेस्ट हाउस, बड़े और छोटे रथ के लिए प्रत्येक कक्ष, पुस्तकालय और यज्ञशाला है। परिसर के बगीचे में तुलसी के पौधे उगाये जाते है। 

मन्दिर परिसर में एक जलकुण्ड है। युं तो हिन्दू धार्मिक प्रथाओं के अनुसार, किसी भी मन्दिर के जलकुण्ड में रात्रि स्न्नान वर्जित है परन्तु ओप्पिलिअप्पन मन्दिर मात्र ऐसा मन्दिर है जिसके तीर्थम में दिन के साथ साथ रात्रि में भी स्न्नान किया जा  सकता है क्योंकि इस कुण्ड में उपचार की शक्ति है इसलिए इसे "अहोरात्र पुष्करणी" के नाम से भी जाता है। 

पीठासीन देवता की मूल मूर्ति को लकड़ी से बदल कर पत्थर की मूर्ति कर दिया गया है। 


ओप्पिलिअप्पन मन्दिर के मुख्य पर्वोत्सव 

मन्दिर प्रातः ५ बजे से अपराह्न १२ बजे तक तथा सायं ४ बजे से रात्रि ९ बजे तक खुला रहता है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार मन्दिर के पीठासीन देवता और माता भूमि देवी की पूजा जोड़ों में की जाती है। जिससे उनके मध्य एकता और सद्भाव उत्पन्न होता है। श्री रामनवमी और रथ उत्सव मंदिर में मनाया जाने वाला सबसे मुख्य पर्वोत्सव है, जो तमिल माह के पंगुनी (मार्च-अप्रैल) के दौरान ९ दिनों तक मनाया जाता है और वैदिक मंत्रोच्चार के बीच ओप्पिलिअप्पन और भूमिदेवी की मूर्तियों को विभिन्न स्थानों से भक्त मन्दिर की सड़कों पर रथ खींचते है। मन्दिर में मनायें जाने वाले मुख्य पर्व इस प्रकार है -

  • थाई (मध्य जनवरी से मध्य फरवरी) माह में मनाया जाने वाला तिरुओणम टेपोटसवम 
  • वैकासी (मध्य मई से मध्य जून) माह में मनाया जाने वाला तिरुवोनम वसंत उत्सवम 
  • अवनि (मध्य अगस्त से मध्य सितम्बर) माह में मनाया जाने वाला ५ दिनों के लिए पवित्रोत्सवम 
  • पुरातासी (मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर) माह में मनाया जाने वाला थिर्वोनम ब्रम्होत्सवम
  • मार्गाजी(मध्य दिसम्बर से मध्य जनवरी) माह में मनाया जाने वाला पहलपाथु १० दिनों के लिए और रापथु १० दिनों के लिए


ओप्पिलिअप्पन मन्दिर कैसे पहुंचे ?

थिरुनागेश्वरम पहुंचने के लिए आपकों सबसे निकटम रेलवे स्टेशन कुम्भकोणम है। जहां से किराये पर कैब, ऑटो, सरकारी या निजी बस जो की सुगमता से उपलब्ध है, की सहायता से ओप्पिलिअप्पन मन्दिर पहुँच सकते है। सबसे निकट हवाई अड्डा तिरुचिरापल्ली (९१किमी) की दूरी पर है। जहां से कुम्भकोणम तक आप रेलवे अथवा सड़क मार्ग से पहुंच सकते है। वैकल्पिक रूप से, आप निजी वाहन से भी ड्राइव कर सकते है। 

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श्रीमन नारायण नारायण हरी हरी। लक्ष्मी नारायण नारायण हरी हरी।।

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