जैसा की आपको ज्ञात है भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। यहाँ निवास करने वाले सभी धर्मों में चाहे वह हिन्दू धर्म हो, बौद्ध अथवा जैन धर्म में नागा ( एक प्रकार के देवता, कोई जाति, वर्ग ) के अस्तित्व को परिभाषित किया गया है। जो की अक्सर पाली या संस्कृत में प्रयोग होने वाला एक सारगर्भित शब्द है। ऐसी श्रृंखला में नागरकोइल का नागराज मन्दिर जो की १००० वर्ष से भी अधिक प्राचीन है, भारत के तमिलनाडु राज्य के कन्याकुमारी जिले से २२ किमी दूर नागरकोइल शहर के केन्द्र में स्थित मन्दिर है।
दंतकथा
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प्राचीन किंवदंती के अनुसार, माला त्रिशूर के पंबुमेक्कतु मन जो की केरल के नम्पुथेरी ब्राम्हण परिवार के वरिष्ठ सदस्य थे के द्वारा नागराज मन्दिर की स्थापना की गयी थी। नागराज वासुकी ने उन्हें दर्शन प्रधान किये जिसके बाद उन्होंने उनकी छवि की प्राण प्रतिष्ठा अपने निवास स्थल पर की। जब भी कोई उनसे अपनी त्वचा सम्बधी बीमारी के उपाय के लिए उनसे मिलने आता तो इस मूर्ति के प्रभाव से उसकी कुंडली में उपस्थित सर्पदोषों का अंत हो जाता जिससे वे शीघ्र ही उस बीमारी से मुक्त हो जाते। एक बार पाण्ड्य शासक के अनुरोध पर जिन्हे कुष्ठ रोग हो गया था से मिलने के लिए ब्राम्हण महोदय उनके महल में गए, जहाँ से वापस केरल जाते समय उन्होंने देखा की एक किसान महिला जिसकी दरांती झाड़ियों से ढकी जमीन में छिपी एक मूर्ति के सिर पर जा लगी थी से रक्त की धारा प्रवाहित हो रही थी । जिसे देखकर वह महिला आश्चर्यचकित थी। उस समय वह स्थान एक जंगली क्षेत्र हुआ करता था। विद्वान नम्पुथेरी ब्राम्हण ने स्थानीय लोगो की सहायता से उस मूर्ति को निकाल कर उसका अभिषेक किया। वह मूर्ति पांच शीश वाले नागराज की थी। ऐसी स्थान पर बने देवस्थल को आज के नागरकोइल के नागराज मन्दिर होने का गौरव प्राप्त है।
वास्तुकला
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प्रारम्भ के दिनों में मन्दिर एक झोपड़ी जिसकी छत फूस की बनी हुई थी, में था। जिसके गर्भगृह की ऊंचाई ५ फीट और फर्श रेंत का था। जो अब आधुनिक समय में पत्थर के आवरण के अंदर है। यहां पर उपस्थित शिव और विष्णु की मूर्तियों को भी इस नई संरचना में स्थान प्राप्त है। केन्द्रीय गर्भगृह जिसमें नागराज,शिव और विष्णु की मूर्तियां स्थापित है को श्रीकोविल कहा जाता है। मन्दिर परिसर में तीन मन्दिर है - पहला मन्दिर मुख्य देवता नागराज को समर्पित है, दूसरा मन्दिर जिसमें श्री रुक्मणी और सत्यभामा जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण जो की एक सर्प पर नृत्य कर रहे है को समर्पित है, तीसरा मन्दिर जो भगवान शिव को समर्पित है। मण्डप में तीर्थंकरों के ६ प्रतीक - ३ महावीर का बैठी हुई मुद्रा में, एक खड़े हुए पार्श्वनाथ इसके अतिरिक्त एक बैठे हुई मुद्रा में पार्श्वनाथ और छठे प्रतीक के रूप में देवी पद्मावती का चित्र है। इसके अतिरिक्त सुब्रह्मण्य स्वामी, भगवान गणेश और देवी दुर्गा आदि को भी स्थान प्राप्त हुआ है। इन जैन प्रतिमाओं को जो असमान्य बनाता है, वह है उनके आसनों के नीचे सिंह का प्रतीक पाया जाना जो की पारम्परिक नियमित और विशिष्ट प्रतीकों से अलग है। दूसरी असमान्यता तीर्थंकरो की प्रतिमा में उनके वक्ष स्थल पर श्रीवत्स चिन्ह का न होना है। शायद इसका कारण जैन मंदिरों के निर्माण के लिए बने दिशानिर्देशों से पूर्व ही इस मंदिर का निर्माण किया गया होगा अथवा निर्माण करने वाले शिल्पकार हिन्दू हो सकते है। जिन्होंने निर्माण के समय उस समय की प्रचलित कला शैली का अनुकरण किया होगा।
त्यौहार
हिन्दू पंचाँग के अनुसार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी के दिन मनाया जाने वाला नागपंचमी का उत्सव जब पूरे देश में नागों को दूध चढ़ाया जाता है और उन्कीपूजा की जाती है, इस मन्दिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव है। इस दिन मन्दिर नागराज के भक्तों से भर जाता है। मन्दिर में तमिल माह ताई ( मध्य जनवरी से मध्य फरवरी ) में ब्रम्होत्सव का पर्व जो एक प्रकार का रथ उत्सव है, रेवती के दिन से प्रारम्भ से होकर अयिल्यम पर समाप्त होता है। इन दस दिनों में अलग अलग तरह से देवताओं के जुलुस निर्धारित समय पर अपने अपने प्रतीकों के साथ मन्दिर से निकाले जाते है। अंतिम दिन भगवान नागराज सहित सभी देवताओं को उत्सव के जुलुस में एक बड़ी पालकी में आसीन करके पवित्र स्नान के लिए पास में बह रही नदी में ले जाया जाता है।
नागराज मन्दिर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
हिन्दू धर्म ग्रन्थों में वासुकी, शेषनाग और मनसा नाग जैसे नागों का और उनसे जुडी पौराणिक कथाओं का उल्लेख हैं। नागराज मन्दिर उन्हें सम्मान देते हुए भारतीय संस्कृति और उसकी पौराणिक कथाओं में उनके महत्त्व को दर्शाता है। यहाँ मन्दिर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य इस प्रकार है -
१. मन्दिर के समस्त अनुष्ठान व पूजा सम्बंधित नियम केरल परम्परा पर आधारित है क्योकि तमिलनाडु का यह हिस्सा १९५६ से पहले तक त्रावणकोण रियासत के आधीन था।
२. यहाँ भक्तों को दिया जाने वाला प्रसाद नागराज के गर्भगृह में भूमि से निकली रेंत है जोकि लाल रंग की है। माना जाता है कि दरांती की चोट से मूर्ति को जो चोट लगी थी। उससे रक्त बहने से मूर्ति के आसपास की रेंत का रंग लाल हो गया है। जबकि उसमे प्रति वर्ष नदी की रेत भरी जाती है परन्तु जब वह भरी जाती है उसका रंग लाल नहीं होता है।
३. प्रसादम के रूप में दी जाने वॉइस रेंत में औषधीय गुण होते है जो भक्तों के त्वचा रोग को ठीक करने में सक्षम है।
४. निःसंतान दम्पतियों को यहाँ पूजा करने से संतान की प्राप्ति हो जाती है।
५. सबसे रोचक और अद्भुत बात तो यह है की यह पूर्ण क्षेत्र जहरीले कोबरा सर्पों से भरा हुआ है। मन्दिर और उसके आसपास के ५ किमी तक के भूभाग से आज तक किसी भी सर्प दंश से मृत्यु की सूचना नहीं है।
६. सर्पदोषम से मुक्त होने के लिए,मन्दिर में पत्थर की सर्प छवियों की पूजा की जाती है जो की पीपल के वृक्ष के नीचे स्थापित है। भक्त मन्दिर में श्रद्धा के अनुसार चांदी के सर्प की छवि को चढ़ाते है तथा नूरम पालम नामक अनुष्ठान में भाग लेते है।
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