भारत के तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम शहर में वेगावती नदी के तट पर स्थित एकंबेश्वर मन्दिर या एकम्बरनाथर स्वामी मन्दिर, भगवान शिव को समर्पित एक हिन्दू मन्दिर है, जो शैव और वैष्णव दोनों ही सम्प्रदायों में सामान रूप से पूजा जाने वाला तीर्थ स्थल है। इसकी प्राचीनता का ज्ञान ३०० ईसा पूर्व के शास्त्रीय तमिल संगम साहित्यों में हुए उल्लेखों से होता है। एकंबेश्वर मन्दिर के मुख्य पीठासीन देवता एकंबरेश्वर या एकम्बरनाथर है, जिनका प्रतिनिधित्त्व लिंगम के द्वारा किया जाता है तथा उनकी पत्नी देवी पार्वती को इलावरकुझली के रूप में जाना जाता है। ७वीं शताब्दी के तमिल कवियोँ द्वारा तेवरम (शिव वंदना) में पीठासीन देवता भगवान एकंबरेश्वर को वर्णित किया गया है। इसके अतिरिक्त एकंबेश्वर मन्दिर को पाडल पेट्रा स्थलम (महाद्वीप के सर्वक्षेष्ठ शिव मन्दिर) की श्रेणी में रखा गया है। यह मन्दिर शहर का सबसे बड़ा और कामाक्षी अम्मन मन्दिर के बाद मुख्य पर्यटक आकर्षण का केन्द्र है। मन्दिर का रखरखाव और प्रशासन तमिलनाडु सरकार के हिन्दू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग द्वारा किया जाता है।
दंतकथा

एक बार विनोद करते समय देवी पार्वती ने भगवान शिव के नेत्रों को ढ़ँक दिया जिससे संसार अंधेरे से आच्छादित हो गया। शिव जी के नेत्र बंद होने से सूर्य और चन्द्रमा भी बिना प्रकाश की किरण के काळे हो गये। संसार को विनाश से बचाने के लिए भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर संसार को प्रकाशित कर दिया। यह सब देखकर भगवती पार्वती अपराध बोध से ग्रषित हो उठी। जिससे मुक्त होने के लिए उन्होंने पृथ्वी पर जन्म लिया और आम के वृक्ष के नीचे रेंत का शिवलिंग बना कर तपस्या करने लगी। उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव ने उन पर अग्नि से प्रहार किया। जिसे देवी पार्वती की प्रार्थना पर उनकी सहायता के लिए उनके भाई श्रीहरी ने शिव के शीश पर सुशोभित चन्द्रमा को उनसे ले लिया तथा उसकी शीतल किरणों द्वारा उस स्थल और देवी पार्वती को शीतलता प्रदान की। इसके बाद भगवान शिव ने तपस्या को बाधित करने के लिए देवी गंगा को भेजा। देवी पार्वती द्वारा गंगा को आश्वस्त किये जाने पर की वे दोनों ही बहने है उन्हें उनकी तपस्या में विघ्न नहीं उत्पन्न करना चाहिए, गंगा उन्हें बिना नुकसान पहुँचाए वापस देवलोक लौट गयी। तपस्या के पूर्ण होने पर शिव जी उस स्थान पर शिवलिंग के रूप में ही स्थापित हो गये, चूंकि शिव जी आम के वृक्ष के नीचे स्थापित हुए थे इसलिए उन्हें आम के पेड़ के भगवान या एकंबरेश्वर के नाम से जाना जाता है।
एक अन्य किंवदंती के अनुसार, माना जाता है देवी पार्वती ने आम के वृक्ष के नीचे रेंत का शिवलिंग (पृथ्वी लिंगम ) के रूप में भगवान शिव से विवाह के उद्देश्य से पूजा की। उस स्थान के निकट बह रही वेगावती नदी उफान पर आ गयी और शिवलिंग को निगलने अर्थात शिवलिंग को बहा ले जाने का प्रयास करने लगी। तब देवी पार्वती या कहे देवी कामाक्षी शिवलिंग से लिपट कर शिवलिंग की रक्षा करने लगी। जिससे भगवान शिव उनकी भक्ति व प्रेम से प्रसन्न हो गये और अपने भौतिक मानव रूप में प्रकट होकर उन्होंने देवी से विवाह किया। देवी के शिवलिंग से लिपटने के कारण उनकी चूंडियो से शिवलिंग पर निशान पड गए, जो आज भी शिवलिंग पर देखे जा सकते है। जो इस किंवदंती की सत्यता को प्रमाणित करते है।
एक अन्य किंवदंती के अनुसार, नयनार कहे जाने वाले ६३ शैव संतों में से एक तिरुकुरिपुथोंडा नयनार मंदिर के पास एक धोबी रहता था तथा सभी शैव सन्तों के वस्त्रों को धोता था। एक दिन एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर भगवान शिव उसके पास उपस्थित हुए और उसे अपने वस्त्रों को अगले दिन भोर होने से पूर्व धोने को कहा। उसी समय शिव जी उसकी परीक्षा लेने के लिए मेघमय संध्या कर दी। शाम होते देख धोबी ने मायूस होकर अपना शीश एक पत्थर से पीट लिया। तब भगवान शिव ने अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर उस पर अपनी कृपा की।
एकंबेश्वर मन्दिर का इतिहास
इस प्राचीन विशाल मन्दिर का अस्तित्व कम से कम ६०० ईस्वी से भी अधिक समय से है। एकंबेश्वर मन्दिर का निर्माण पल्लव शासनकाल के दौरान प्रारम्भ हुआ था। तत्कालीन पल्लव शासक द्वारा वेदान्तवादी कचियप्पर को मुख्य पुजारी के पद पर नियुक्त किया। आधुनिक संरचना का निर्माण चोल शासकों द्वारा करवाया गया है। १५वीं शताब्दी के दौरान, विजय नगर के राजाओं ने भी मन्दिर में अपना योगदान प्रदान किया। वल्लल पचीयप्पा मृदलियार द्वारा विकसित इस मन्दिर में पूजा करने के लिए नियमित रूप से चेन्नई से कांचीपुरम जाते थे। घोड़े पर बैठे हुए उनकी छवि को मन्दिर के स्तम्भ में देखा जा सकता है। १५३२ सीई के शिलालेखो से ज्ञात होता है की अच्युतराय ने नायक वीरा नरसिंगराय सालुवा को मन्दिर निर्माण के कार्यो के लिए भूमि देने का आदेश दिया। उन्होंने वरदराज स्वामी मंदिर की तुलना में एकंबेश्वर मन्दिर को अधिक भूमि दे कर राजसी आदेश का उलंघन किया, जो की मन्दिरों में से किसी एक को सामान उपहार देने के निर्देश के विरुद्ध था। जिसे अच्युतराय द्वारा सुधार कर दोनों मन्दिरों को सामान भूमि प्रधान कर दी गयी।
एकंबेश्वर मन्दिर का वास्तु
मन्दिर २३ एकड़ से अधिक के क्षेत्र में फैला हुआ है। ५९ मीटर की ऊंचाई तक पहुंचने वाला एकंबेश्वर मन्दिर का राजगोपुरम (मन्दिर परिसर का प्रवेश द्वार) दक्षिण भारत की ऊँची इमारतों में से एक है। स्थित ११ कलश गोपुरम के शीर्ष पर समृद्धि और शुभता का प्रतीक है। इस ऊँचे गोपुरम के मघ्य में शिवलिंग को गले लगाते हुए पार्वती जी की मन्दिर को परिभाषित करने वाली छवि है। प्रवेश द्वार को पर करते ही दो मण्डप - वाहन मण्डप और सरबेसा मण्डप (नवरात्री हॉल) कहलाते है। एक बार मन्दिर परिसर में प्रवेश करने के बाद आपको एक विशाल गलियारा जो गहरे भूरे रंग के सुन्दर नक्काशीदार पत्थरों पर टिका हुआ है। दोहरे खम्भों में घोड़ो की छवि और अन्य जानवरों की आकृतियाँ ऐसी प्रतीत होती है जैसे की सेना अपने राजा की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही हो। फर्श पर फूलों के पैटर्न है। जिन्हे देखने से लगता है जैसे वे आपका स्वागत कर रहे है। अन्दर के गलियारे की लम्बाई देखकर आपको ज्ञात हो जायेगा की मन्दिर कितना बड़ा है। इस गलियारे को अरियम काल मण्डपम या एक हजार स्तम्भों वाला दालान जिसे विजय नगर राजाओं द्वारा बनवाया गया था।
बीच में एक सूंदर नक्काशीदार पत्थर के आधार पर एक लम्बा ध्वज स्थम्ब उपस्थित है। यहाँ की दीवारों को शिव सुन्दर छवियों से सजाया गया है। गलियारे के बाहर अन्य दक्षिण भारतीय मंदिरो की ही भांति जलकुण्ड है। गलियारे के सबसे दूर, गर्भगृह की सीधी रेखा में एक छोटा सा नंदी मंडप है, जिसके अंदर सफेद रंग के नंदी की मूर्ति को आप देख सकते है। गर्भगृह के भीतर शिव की छवि के साथ लिंगम भी है। पहली सीमा के पास ६३ नयनमारों की छवि है। मन्दिर के सबसे भीतरी क्षेत्र को शिवलिंगम की एक श्रृंखला से सजाया गया है। जिनमे से एक सहस्त्र लिंगम (१००८) शिवलिंग खुदे हुए है। कांचीपुरम के अन्य शिव मन्दिरों की तरह परिसर के भीतर पार्वती के लिए कोई अलग मन्दिर नहीं है। लिंगम की छवि के पीछे, शिव पार्वती का चित्रण एक पट्टिका में है। जिसमे शिव को तजुवा कुजैंथर और देवी पार्वती को इलावर कुजली के रूप में दर्शाया गया है।
एकंबेश्वर मन्दिर परिसर के अन्दर विष्णु के लिए एक छोटा सा मन्दिर है, जिन्हें नीलाथिंगल थुण्डम पेरुमल मन्दिर है। विष्णु की वामन रूप में पूजा की जाती है।
एकंबेश्वर मन्दिर का धार्मिक महत्त्व
पंचभूत स्थलम उन पांच शिव मन्दिरों की ओर ध्यान आकृष्ट करती है, जो प्रकृति के मुख्य पांच तत्व - क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर का प्रतिनिधित्व करते है। यह सभी मन्दिर दक्षिण भारत में ही स्थित है, इनमे से चार तमिलनाडु और एक आंध्र प्रदेश में है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इन पांच तत्वों को शिव जी का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच लिंगो में स्थापित किया गया है। कहा जाता है शिव ने स्वयं को इस स्थल पर आम के वृक्ष के नीचे पृथ्वी लिंगम के रूप में प्रकट किया था। अन्य चार लिंगम
जम्बुकेश्वर मन्दिर तिरुवनाइकवल में अप्पू लिंगम ( जो जल का प्रतिनिधित्व करता है ),
थिलाई नटराज मन्दिर चिदंबरम में अकाया लिंगम ( जो आकाश का प्रतिनिधित्व करता है ),
अन्नामलाईयार में अग्नि लिंगम ( जो अग्नि का प्रतिनिधित्व करता है ), तथा
श्रीकालहस्ती मंदिर आंध्र प्रदेश में वायु लिंगम ( जो वायु का प्रतिनिधित्व करता है ) । इन मन्दिरों में लोग मोक्ष, सम्पदा, रोगों से मुक्ति, वाहनों की खरीद और ज्ञान प्राप्त करने की मनोकामना ले कर दर्शन के लिए आते है।
एकंबेश्वर मन्दिर के वार्षिकोत्सव
मन्दिर में प्रातः ५:३० बजे से रात्रि 9:०० बजे तक दर्शन किये जा सकते है। इस अंतराल में मन्दिर के पुजारी पर्वोत्सव की अवधि और दैनिक आधार पर अनुष्ठान करते है। जो शैव प्रथा का पालन करते हुए भगवान शिव को समर्पित पुजारी ब्राह्मण शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित होते है। मन्दिर प्रातः ५:०० बजे से अपराह्न १२:०० बजे तक और सायं ४:०० बजे से रात्रि ९:०० बजे तक खुला रहता है। प्रत्येक अनुष्ठान के ४ चरण होते है - अभिषेक (स्नान), अलंगरम (श्रृंगार), निवेथानम (नैवेद्य अर्पण) और दीपा अरदानई (आरती)। चूँकि मन्दिर का शिवलिंग रेंत का बना हुआ है अतः सभी स्नान केवल आसन पर ही किये जाते है। मन्दिर के पारम्परिक अनुष्ठान दिन में ६ बार किये जाते है, जो इस प्रकार है -
- प्रातः ५:३० बजे - उषाथकलम
- प्रातः ८:०० बजे - कला शान्ति
- प्रातः १०:०० बजे - उचिकलम
- सायं ६:०० बजे - सयारक्षाई
- सायं ८:०० बजे - इरान्दमकलम
- रात्रि १०:०० बजे - अर्ध जमाम
मन्दिर में अन्य शिव मन्दिरों की तरह ही सोमवार और शुक्रवार को साप्ताहिक अनुष्ठान, प्रदोष जैसे पाक्षिक व मासिक पर्व जैसे अमावसई, किरुथिगई, पूर्णनामि और सथुरथी आदि उत्सव मनायें जाते है। मन्दिर का मुख्य उत्सव वैकासी विसगम जो तमिल माह वैकासी (मध्य मई से मध्य जून) में मनाया जाता है।मन्दिर का सबसे मुख्य उत्सव पंगुनि माह में मनाया जाने वाला पंगुनि ब्रह्मोत्सवम है। जो १० दिनों तक चलता है और कल्याणोत्सवम के साथ समाप्त होता है। इसमें एकंबरेश्वर को प्रातः नंदी पर और सायं रावणेश्वर वाहनम में ले जाया जाता है।
एकंबेश्वर मन्दिर के बारे में रोचक तथ्य
- मध्य जनवरी से मध्य फरवरी के मध्य आयोजित होने वाली रथ सप्तमी के दिन पीठासीन भगवान श्री एकंबरेश्वर पर सूर्य की किरणें पड़ती है।
- एकंबरेश्वर मन्दिर में आम का पेड़ ३५०० साल पुराना है जो विभिन्न स्वादों के फल देता है।
- भगवान एकंबरेश्वर नाथर की स्तुति चार शैव संतो - थिरुगनाना संबंदर, थिरुनावुक्कारासर, सुंदरार और मणिकवसागर द्वारा की गयी है।
- थोंडैनाडु क्षेत्र में यह पहला भगवान शिव का मंदिर है जिसकी थेवरम और थिरुवसागम के भजनों में चर्चा की गयी है।
- कांचीपुरम हाँथ से बुनी रेशमी साडियों के लिए प्रसिद्ध है जिनमें से एक डिजाइन एकंबरेश्वर के नाम से भी मिलता है।
एकंबेश्वर मन्दिर परिसर में अन्य मन्दिर
- काली अम्मन मन्दिर
- उत्सव मूर्ति मंदिर
- एकंबेश्वर मन्दिर आम का वृक्ष
- श्री यंत्र
- सहस्त्रलिंग मन्दिर
- नटराज मन्दिर महा विष्णु मन्दिर
कांचीपुरम मन्दिर कैसे पहुँचे ?
कांचीपुरम तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई जो की वायु, रेल और सड़क मार्ग के द्वारा देश के प्रमुख राज्यों व शहरों से एक सुनियोजित तंत्र से जुडी हुई है, से ७५ किमी की दूरी पर स्थित है। चेन्नई हवाई अड्डे व रेलवे स्टेशन से आप टैक्सी अथवा सरकारी व निजी बस सेवा का आनन्द लेते हुए एकंबेश्वर मन्दिर व कामाक्षी मन्दिर में पराशक्ति भगवती कामाक्षी अम्मन के दर्शन करने के लिए पहुँच सकते है।
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