देवी कामाख्या का प्रसिद्ध धाम असम के गुवाहाटी के पश्चिमी भाग में स्थित नीलाचल पहाड़ी के मध्य स्थित देवी के ५१ शक्तिपीठों में से एक होने के कारण देश के सबसे पवित्र और प्राचीन तांत्रिक शक्तिवाद पंथ का केंद्र बिंदु है। गुवाहाटी की प्राचीनता का ज्ञान कई प्राचीन साहित्य और पांडुलिपियों से होता है जिसमें प्रागज्योतिषपुर के रूप में इसका उल्लेख किया गया है, जिसमें कई मन्दिर होने के कारण धार्मिक दृष्टि से इसका महत्व पूरे असम में सबसे ज्यादा हैं।
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नीलकुटा पर्वत Image Source - Google by Flickr |
नीलाचल पर्वत ( प्राचीन ग्रन्थों में जिसे नीलकुटा, नीलगिरि और कामगिरी के रूप में उल्लेख किया गया है ), तीन भागों ब्रह्मा हिल, विष्णु हिल और शिव हिल के मिलने से बनी है। भुवनेश्वरी मन्दिर सबसे उच्चतम बिन्दु पर स्थित आस्था का केन्द्र बिंदु है। जिसमें माँ कामाख्या के अतिरिक्त, दशमहाविद्या ( कामाख्या - देवी मातंगी और कमला के साथ त्रिपुर सुन्दरी, काली, तारा, भुवनेश्वरी, बगलामुखी, छिन्नमस्ता, भैरवी और धूमावती ) इनकी सुरक्षा के लिए पहाड़ी के चारों ओर भगवान वृषभान अपने पांच रूपों - कामेश्वर, सिद्धेश्वर, केदारेश्वर, अमृतोकेश्वर, अघोरा और कोटिलिंग में स्थित है। इन सभी मन्दिरों के इस क्षेत्र को कामख्या मन्दिर परिसर के रूप में जाना जाता है। नीलकुटा पर्वत के इस क्षेत्र में बाणदुर्गा मन्दिर, जयदुर्गा मन्दिर, ललिता कान्ता मन्दिर, श्मशान काली मन्दिर, गदाधर मन्दिर, घण्टाकर्ण मन्दिर, त्रिनाथ मन्दिर, सांखेश्वरी मन्दिर, द्वारपाल गणेश मन्दिर आदि भी स्थित है।
देवी कामाख्या से जुडी दंतकथा
देवी कामेश्वरी का यह पुण्य क्षेत्र रहस्यों से भरा हुआ है और मानव का सहज स्वभाव है, इन रहस्यों को जानने के लिए उनकी ओर आकर्षित होना। काले जादू के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र अनौपचारिक रूप से तांत्रिक अभ्यास का केन्द्र रहा है। माँ कामख्या के सम्बन्ध में काफी कुछ मौखिक किंवंदन्तियाँ प्रचलित है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं -
प्राचीन हिन्दू महाग्रंथों में भगवान शिव और देवी सती के उस समय का वर्णन है, जब श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ जनक दुलारी की खोज में वन वन भटकते हुए अपनी मानवलीला को कर रहे थे। तब देवी सती को शिव जी के द्वारा मना किया जाने पर भी श्रीराम को परब्रह्म होने पर सन्देह हो आया और उन्होंने श्री राम की परीक्षा लेने का मन बना लिया। जिसके लिए उन्होंने सीता का रूप धारण कर राम के समक्ष प्रकट हो गयी। श्रीराम के द्वारा उन्हें पहचान लिया गया और सब तरफ उन्हें स्वयं को प्रकट कर राम द्वारा उनके सन्देह को समाप्त कर दिया गया। और देवी सती भगवान शिव के पास वापस आ गयी। उनसे भगवान शिव ने पूछा आप मेरे स्वामी की परीक्षा ले आयी इस पर उन्होंने उनसे मिथ्या ( झूठ ) बोला परन्तु शिव तो ठहरे आदियोगी, उन्होंने अपनी योगमाया से सब जान लिया। उनके ह्रदय में देवी सती के प्रति ग्लानि हो गयी क्योंकि उन्होंने देवी सीता का रूप धारण किया था। इसलिए उन्होंने कैलाश पहुंच कर देवी को तो कुछ नहीं कहा किन्तु देवी का परित्याग कर वे समाधि में बैठ गए। देवी सती भी अपनी शक्ति से प्रभु द्वारा किये गए त्याग को जान परब्रम्ह श्री राम से अपनी इस देह के त्याग के लिए प्रार्थना करने लगी जिसे श्रीराम द्वारा स्वीकार कर लिया गया। परिणाम स्वरुप देवी सती ने अपने पिता के द्वारा किये गए यज्ञ में अपने पति की निंदा को जानकर स्वयं को योगाग्नि से स्वयं को समाप्त कर लिया। उनके शोक में देवी का शव अपने कन्धे पर लिए हुए भगवान शिव सृष्टि में इधर उधर भटकने लगे। जिस पर उन्हें इस कष्ट से मुक्त करने के लिए जग के पालक श्री हरी ने अपने सुदर्शन चक्र से देवी के शव के टुकड़े टुकड़े कर दिए। शव के टुकड़े जहां जहां गिरे वहां पर शक्तिपीठ की स्थापना हुई। देवी का जंनजांग ( योनि ) नीलाचल पर्वत की इस हिस्से पर गिरे जिससे इस स्थल को देवी के दिव्य शक्तिपीठ का गौरव प्राप्त हुआ।
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देवी कामेश्वरी |
दूसरी किंवंदति यह है की जब भगवान शिव अपने ध्यान में लीन थे और तारकासुर के सताए देवताओं ने देवी पार्वती के द्वारा भगवान विश्ववान को पति रूप में पाने के लिए की जा रही तपस्या के फल को प्रदान करने के के लिए कामदेव को आगे कर के उनके ध्यान को भंग करने के प्रयास करने लगे। जिसमे इस प्रकार से तपस्या को भंग करने के कारण भगवान शिव का तीसरा नेत्र उत्पन्न हो गया जिसमे जल कर कामदेव ने अपना सुन्दर स्वरुप खो दिया। तब देवी रति और कामदेव ने अपना मूल स्वरुप प्राप्त करने के लिए भगवान शिव के आदेश पर नीलाचल पर्वत पर देवी की पवित्र योनि मुद्रा खोज की तथा उनकी पूजा करने लगे। वर्षो की उपासना के बाद देवी ने दर्शन देकर उनका मनवांछित वरदान प्रदान किया। कृतज्ञ कामदेव ने देवशिल्पी विश्वकर्मा की सहायता से योनि मुद्रा के ऊपर एक मन्दिर भवन का निर्माण करवाया। इसलिए इस क्षेत्र का एक नाम कामरूप भी पड़ा।
तीसरी किंवदंती के अनुसार, "कालिका पुराण" जो शाक्त सम्प्रदाय के पवित्र ग्रंथों में से एक है। जिसके अनुसार भगवान श्री हरि और देवी कामख्या के मिलन से उत्पन्न नरक, जो देवी कामख्या का पहला उपासक था। जिसने इस स्थल पर देवी के मंदिर का निर्माण कराया। जिसने बाद में बाणासुर से सन्धि कर ली। तथा जगत में अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। परिणाम स्वरुप मद में चूर नरक ने ऋषि वशिष्ठ को देवी के दर्शन करने से रोक दिया। जिसके कारण उन्होंने देवी और नरक दोनों को ही श्राप दे दिया।
देवी कामाख्या मन्दिर का इतिहास
यूँ तो स्थानीय लोगों और इतिहास में मंदिर के विषय में कुछ भी प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। परन्तु शक्ति पंथ के ग्रंथो से ज्ञात होता है कि मंदिर के मूल रूप का निर्माण कामदेव हुए देवी रति ने देवशिल्पी विश्वकर्मा की सहायता से किया गया था। जो वर्तमान संरचना से अधिक विकसित क्षेत्र में रहा होगा। अर्थात कहा जाये तो मन्दिर का निर्माण आर्य पूर्व का माना जाता है। जिसकी मूल संरचना समय के साथ नष्ट होकर धरती में विलय हो गयी।
मध्यकाल में कोच राजा विस्व सिंह के द्वारा १५५३-५४ के मध्य पुनः इसका निर्माण कराया गया। जिसको भी प्राकृतिक आपदाओ ने अपनी गोद में ले के नष्ट कर दिया। जिसका निर्माण पुनः उनके उत्तराधिकारी राजा नरनारायण और उनके भाई चिंलाराय के द्वारा करवाया गया। साथ ही साथ मन्दिर को राजसी संरक्षण प्रदान किया।
१७वीं शताब्दी असम के लिए एक सुनहरा समय ले के आयी जिसमें अहोम शासकों ने ब्रह्मपुत्र के क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के साथ ही साथ आध्यात्म में भी अपनी गहरी रूचि दिखाई। जिसे प्रदर्शित करते मन्दिर में कई शिलालेख व ताम्बे की प्लेट है।
१८९७ ई. में आये इस क्षेत्र के भूकम्प ने इस मन्दिर को अत्याधिक क्षति पहुंचाई। जिसके बचाव के लिए कोचबिहार के शासक बचाव में आये और मरम्मत के कार्य के लिए मंदिर को एक मोटी राशि प्रदान की। बाद में भी मन्दिर का विभिन्न चरणों में जीर्णोद्धार का कार्य किया जाता रहा है।
देवी कामाख्या मन्दिर की संरचना
वर्तमान संरचना एक अर्धगोलाकार गुम्बद और क्रूस के आकार में है। जो की नीलाचल शैली ( १५६५ ई में निर्मित पारम्परिक नागर और उत्तर भारतीय सारसेनिक के सामंजस्य से निर्मित शैली ) में बनाया गया है,जिसमें पूर्व से पश्चिम की ओर चार कक्ष है। जो इस प्रकार है -
- गर्भगृह - गर्भगृह एक आधार पर बनाई गयी संरचना है, जिसमें देवताओं की अलंकृत मूर्तियों से धँसा एक हिस्सा है। गर्भगृह का निचला हिस्सा अष्टकोण के आकार में ईंटों से बना हुआ है। भूमि में एक दरार उपस्थित है जिसकी देवी कामाख्या के रूप में पूजा की जाती है।
- कलंता - पश्चिम में कलंता, एक चौकोर आकर का कक्ष है। जिसके कक्ष की दीवारों पर कई चित्र और शिलालेख उकेरे गए है।
- पंचरत्न - कलंता के पश्चिम में एक आयताकार निर्माण है जिसमें एक सपाट छत है। छत पर पांच छोटे शिखर है।
- नटमन्दिर - पंचरत्न के पश्चिम की ओर स्थित संरचना नटमन्दिर है जिसमे रँघर प्रकार की अहोम वास्तु शैली की एक अपसाइड एन्ड और लकीर वाली छत है। जिसकी दीवारों पर कोच राजा विस्व सिंह और गौरीनाथ सिंह के शिलालेख खुदे हुए है।
कामाख्या देवी के दर्शन का समय
नियमित दिनों में मन्दिर प्रातः ८:०० बजे से अपराह्न १:०० बजे तक और दोपहर २:३० बजे से सायं ०५:३० बजे तक खुला रहता है। विशेष दिनों जैसे दुर्गा पूजा इत्यादि के अवसर पर प्रातः ५:३० बजे देवी को स्न्नान और ६:०० बजे प्रातः नित्य पूजा का आयोजन किया जाता है जिसके बाद नित्य दिनों की भांति भक्तों के लिए मन्दिर प्रातः ८:०० बजे से अपराह्न १:०० बजे तक खोला जाता है। दोपहर १:०० बजे मन्दिर के पट देवी को भोग अर्पण करने के लिए पुनः कुछ समय के लिए बंद किये जाते है।
देवी कामाख्या मन्दिर में आयोजित किये जाने वाले उत्सव
अम्बुबाची मेला
अम्बुबाची मेला जिसे स्थानीय लोगो द्वारा "अमेती" या "अमोती" के नाम से सम्बोधित किया जाता है, पर्वोत्तर भारत में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा समारोह है। जो दो शब्दों "अम्बु " - जिसका अर्थ है पानी और "बाची" - जिसका अर्थ है बहना से मिल कर बना है। यह उत्सव असमिया और बंगाली पंचांग के आशारा माह (हिन्दू पंचांग के आषाढ़ माह ) के सातवें दिन मनाया जाता है। जो अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार लगभग २१ या २२ जून को पड़ता है।
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मान्यता है, इस समयावधि में देवी अपने वार्षिक मासिक धर्म की अवधि में प्रवेश करती है। देवी को इस समय धरती माता में पूजा जाता है। किसानों की धारणा के अनुसार, वह धरती माता की तुलना एक उपजाऊ महिला से करते है।
देवधवानी मेला ( मनसा पूजा )
श्रवण संक्रांति के दिन से कामख्या मन्दिर के नटमन्दिर में तीन दिन तक मनसा पूजा की प्रथा है। जिसमें देवधनी नृत्य जिसमे किसी देव स्वरूप की आध्यत्मिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। जिन्हें स्थानीय लोगो द्वारा देवदास कहा जाता है। इस देवधवानी मेले को देखने के लिए प्रतिवर्ष हजारों लोग कामख्या मन्दिर आते है।
दुर्गा पूजा या पखुआ पूजा
दुर्गा पूजा कामख्या मन्दिर में मनाया जाने वाला सबसे प्रमुख त्योहार है जिसमें हर तरफ सिर्फ भक्ति ही भक्ति के दर्शन होते है। इसे कृष्ण नवमी से प्रारम्भ करके अश्विन की शुक्ल पक्ष की नवमी तक एक पखवाड़े के लिए आयोजित किये जाने के कारण इसे पखुवा पूजा के नाम से भी जाना जाता है। इसमें देवी के महास्नान ( पंचगरवा ) के बाद तंत्र मत के अनुयायियों के द्वारा भैंसे, बकरी, कबूतर और मछली की बलि दी जाती है वही साधारण लोगों द्वारा लौकी, कद्दू और गन्ने बलि अर्पित की जाती है।
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कुमारी पूजा
कुमारी पूजा कामाख्या शक्तिपीठ में की जाने वाली सभी मुख्य पूजा का एक अभिन्न हिस्सा है। देवी पुराण के अनुसार कोलासुर नाम के असुर ने सृष्टि पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया तब देवताओं ने देवी आदिशक्ति को अपनी सहायता के लिए आवाहन किया। देवी ने एक कुंवारी युवती का रूप धारण करके असुर का वध करके जगत को उसके अत्याचारों से मुक्ति प्रदान की।
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कुमारी पूजन |
इसी घटना की याद में देवी के कुमारी स्वरुप की पूजा की जाती है जिसमें एक कुंवारी लड़की को लाल साड़ी पहना कर सुंदर आभूषणों व माला आदि से उसका श्रृंगार करके देवी कामाख्या के स्वरुप को मान कर उसकी पूजा की जाती है। इसका मूल उद्येश्य नारी मूल्यों को जग में स्थापित करना है, क्योकि युवती नारीत्व या प्रकृति का प्रारम्भिक बीज है जो सृजन, स्थिरता और विनाश को नियंत्रित करने की शक्ति रखती है।
देवी कामाख्या मन्दिर का रहस्य
देवी कामाख्या मन्दिर कैसे पहुंचे ?
हवाई मार्ग से | रेल मार्ग से | सड़क मार्ग से |
देवी कामाख्या के दर्शन के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डा गुवाहाटी का गुवाहाटी हवाई अड्डा है। जिसकी दूरी मन्दिर से लगभग १९ किमी हैं। हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही असम पर्यटन विभाग की बसें व किराये पर उपलब्ध टैक्सियां मन्दिर पहुंचने के सबसे बढ़िया यातायात का साधन है। | देवी कामाख्या के दर्शन के लिए सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन गुवाहाटी रेलवे स्टेशन ( ९ किमी )और कामख्या रेलवे स्टेशन ( ७ किमी ) है। ट्रेन से उतरने के बाद, अपने गंतव्य मन्दिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय बस या टैक्सी लेकर मन्दिर पहुंच सकते है। | देश का पूर्वोत्तर राज्य राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गो से एक सुनियोजित तरीके से जुड़ा हुआ है जो खेतों गावों के बीच से गुजरते हुए कैमरे के लिए बेहतरीन दृश्य प्रस्तुत करते है। यदि आप लम्बी दूरी की यात्रा करने के शौकीन है तो आप अपनी निजी कार से या फिर गुवाहाटी के किसी भी हिस्से से ऑटो या टैक्सी किराये पर ले सकते है। इसके अतिरिक्त ए एस टी सी कछारी बस स्टॉपेज से भी मन्दिर के लिए बीएस सेवाएं जो नियमित अंतराल में सुबह ८:०० बजे से शाम ६:०० बजे तक उपलब्ध है। |
2 टिप्पणियाँ
Wonderful Article. Really very helpful for the people who are unaware about it
जवाब देंहटाएंNice information. Thanks
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