Header Ads Widget

Responsive Advertisement

सबरीमाला मन्दिर

दक्षिण भारत का अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध राज्य केरल जिसके पथानामथिट्टा जिले के गांव में धार्मिक सद्भावना का प्रतीक सबरीमाला मन्दिर, सबरीमाला पहाड़ी के शिखर जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से लगभग ३००० फीट है पर एक हिन्दू ब्रह्मचारी देवता श्री अय्यप्पन को समर्पित है। ८०० वर्ष पुराने इस सबरीमाला मन्दिर दुनिया के सबसे बड़े वार्षिक तीर्थ स्थलों में से एक है, जहां ४० से ५० मिलियन तीर्थयात्री प्रतिवर्ष ( एक अनुमान के अनुसार ) भगवान श्री अयप्पा के दर्शन के लिए आते है। केन्द्रीय मन्दिर कोविल १८ पहाड़ियों, मन्दिर परिसर और घने वन के मध्य स्थित है जिसे पुंगवन के नाम से भी जाना जाता है। 

भगवान अयप्पा सबरीमाला मन्दिर के अधिष्ठाता
भगवान श्री अयप्पा

शास्ता की पूजा का वर्णन दक्षिण भारत के सभी प्राचीन सहित्यो में किया गया है। दक्षिण भारत और पूरे विश्व में शास्ता मन्दिर है। भगवान परशुराम के द्वारा स्थापित पांच शास्ता मन्दिर इस प्रकार है  -
  1. कुलथुपुझा शास्ता मन्दिर - जहां  भगवान शिशु रूप में प्रकट हुए थे। 
  2. आर्यनकावु शास्ता मन्दिर - जहाँ भगवान ब्रह्मचारी या युवा रूप में निवास करते है। 
  3. अचनकोविल शास्ता मन्दिर - जहाँ भगवान गृहस्थ जीवन व्यतीत करते है। 
  4. सबरीमाला शास्ता मन्दिर - जहाँ भगवान वानप्रस्थ में एक नास्तिक ब्रह्मचारी या अविवाहित ब्रह्मचारी के रूप  में निवास करते है। 
  5. पोन्नमबाला मेडु शास्ता मन्दिर - जहाँ भगवान मकरविलाकु के रूप में निवास करते है। 

भगवान अयप्पा के उत्पत्ति की कथा 

प्राचीन कथाओं के अनुसार महाराज राजशेखर जो की निसंतान थे एक न्यायप्रिय शासक थे। उनके शासन में उनके राज्य की समृद्धि अपने चरम पर थी। उस समय राक्षस राज महिषासुर की मृत्यु के बाद उसकी बहन महिषी ने अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए उसने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या करके वरदान प्राप्त किया जिसमे उसने उनसे माँगा की उसकी मृत्यु भगवान हरि और शिव के मिलन से उत्पन्न पुत्र के द्वारा ही हो। वरदान प्राप्त होने के बाद उसने तीनो लोको में भयंकर आतंक फैलाना प्रारम्भ कर दिया। तब सबने मिलकर श्री हरि से प्रार्थना की, कि वे उनकी रक्षा करें। तब श्री हरि ने अपना वही मोहिनी रूप धारण किया, जिसे उन्होंने समुद्र मंथन के समय धारण किया था। मोहिनी और भगवान शिव के मिलन से एक पुत्र का जन्म हुआ। निर्णय लिया गया की इस पुत्र को महान शिव भक्त राजा राजशेखर की देखरेख में रखा जाये। 


पम्पा नदी के पास के जगलों में जब राजा राजशेखर शिकार कर रहे थे। शिकार करते समय उनका ध्यान एक शिशु के रुदन की आवाज ने अपनी ओर आकर्षित कर लिया। उन्होंने रुदन की आवाज का अनुसरण किया और उस स्थल पर आ गए, जहां सुंदर शिशु अपने पैरों और बाहों को मार रहा था। राजा ने बहुत देर तक वहां उसके परिजनों का इंतजार किया। तभी वहाँ एक साधु प्रकट हुए और उन्होंने राजा को उस सुंदर शिशु को महल ले जाने का आदेश दिया। साथ ही साथ उन्होंने राजा को बताया जब शिशु १२ वर्ष का हो जायेगा तो उन्हें स्वयं ही उसकी देव शक्तियों का ज्ञान हो जायेगा। क्यूंकि शिशु का गला स्वर्ण की भांति चमक रहा था इसलिए उन्होंने इस बालक का नाम मणिकंदन रखने का निर्देश दिया। राजा उस शिशु को महल ले आये जहां वे रानी के साथ शिव का आशीर्वाद मानकर शिशु का पालन करने लगे।  


समय के साथ शिशु को शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजा गया। जहां उन्हें कलारीपयट्टू और शास्त्रों में अपने उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त किया तथा अपनी अलौकिक प्रतिभा से अपने गुरु को भी प्रभावित किया। शिक्षा पूरी होने के बाद जब मणिकंद (बाद में अयप्पा नाम से सम्बोधित )अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देने गए तो उन्होंने अपने अंधे और गूंगे पुत्र को दृष्टि और वाणी प्रदान करने की मांग की। जिसे अयप्पा ने गुरु बालक के शीश पर हाथ रख कर प्रदान कर दिया परन्तु साथ ही साथ गुरु से वचन भी लिया की उनके इस कृत्य के बारे में वे किसी अन्य को नहीं बतायेंगे। 


इसी बीच रानी के एक शिशु को जन्म दिया, किन्तु राजा राजशेखर ने अयप्पा को ही अपना उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय का उनके मंत्रीगणों के साथ ही साथ उनकी प्रजा ने भी स्वागत किया सिर्फ उनके दीवान को ही इस निर्णय पर आपत्ति थी। अतः उन्होंने एक योजना बनायी जिसमे उन्होंने रानी को भी बहका के शामिल कर लिया। उसकी बात मान कर रानी ने अपनी बीमारी का बहाना बनाकर चिकित्सक से घोषणा करवा दी की उनकी बीमारी केवल और केवल बाधिन के दूध से ही ठीक हो सकता है। रानी ने राजा को बाध्य करना शुरू कर दिया की वे अपने प्रिय पुत्र मणिकंद को जंगल से दूध लेने के लिए भेजे। जिससे उसकी मृत्यु जंगल में जानवरों द्वारा हो जाएगी और उसका जन्मा पुत्र राजा बन जायेगा। राजा ने घोषणा कर दी जो भी बाघिन का दूध लाएगा उसे वह अपना आधा राज्य दे देगा। दीवान ने कुशल कूटनीतिज्ञ की भांति योजना के साथ सिपाहियों का एक दल बाघिन का दूध लाने के लिए भेजा। तब मणिकंद ने पिता से वन जाने की आज्ञा मांगी जिसे राजा द्वारा मना कर दिया गया। तब अत्याधिक अनुनय विनय पर अंत में राजा द्वारा उसे वन जाने की आज्ञा प्राप्त हो गयी। अनिच्छा से पिता ने अपने प्रिय पुत्र को मार्ग के लिए भोजन और नारियल प्रदान किये। 


अयप्पा ने जंगल में प्रवेश किया तो उसकी नजर जैसे ही मार्ग में महिषी के द्वारा किये गए अत्याचारों को देख कर उनका क्रोध जाग्रत हो गया और उन्होंने उसको ललकार लिया। जिसके प्रत्युत्तर में महिषी और अयप्पा में युद्ध प्रारम्भ हो गया। अयप्पा ने उसको उठा के धरती पर अजुथा नदी के तट पर फेक दिया। उसकी छाती पर चढ़ कर उन्होंने नृत्य करना प्रारम्भ कर दिया, जिसकी ध्वनि से पृथ्वी के साथ साथ देवलोक भी हिलने लगा। महिषी को अनुभव हो गया की मणिकंदन कौन है और उसने उनसे क्षमा प्रार्थना की और उनमे ही स्वयं को विलीन कर दिया। इसके बाद मणिकंदन ने वन में प्रवेश किया जहां भगवन शिव ने धरती पर उनके जन्म का उद्देश्य पूर्ण होने का ज्ञान कराया। 


भगवान अयप्पा सबरीमाला मन्दिर के अधिष्ठाता

इसके बाद मणिकंदन ने बाघिन का दूध प्राप्त किया। उस समय देवराज इन्द्र और उनकी पत्नी सचि ने बाघ और बाघिन का रूप धारण कर मणिकंदन के साथ अपने राज्य पंडालम में प्रवेश किया। पंडालम में लोग एक बालक और बाघों को देख कर घबरा का अपने घरों की ओर भागने लगे। जब मणिकंदन राजमहल पहुंचे तो राजा राजशेखर उनके चरणों पर गिर पड़े और न चाहते हुए अपने दिए गए आदेश के लिए उनसे क्षमा मांगने लगे। मणिकंदन उनसे अत्यधिक स्नेह करते थे इसलिए उन्होंने उन्हें क्षमा कर दिया। तब राजा राजशेखर की अडिग भक्ति और विश्वास को देखते हुए मणिकंदन ने उनसे वरदान मांगने को कहा। जिस पर राजशेखर ने उनसे उनका मन्दिर निर्माण करवाने के लिए उपयुक्त स्थान बताने का अनुरोध किया। मणिकंदन ने तीर को लक्ष्य करके संधान किया। तीर जा के सबरी नाम के स्थान पर गिरा। मणिकंदन ने उसी स्थल पर मन्दिर बनवाने को कहा और अदृश्य हो गए। 

राजा राजशेखर ने संत अगस्त्य के मार्गदर्शन में मन्दिर की आधारशिला रखी। मन्दिर परिसर में जाने वाली १८ पवित्र सीढ़ियों का निर्माण भी उन्ही के शासनकाल में किया गया था। हर साल लाखों की संख्या में आने वाले भक्त माला और इरुमुड़ी के साथ भगवान अयप्पा का मंत्रोच्चार करते हुए पवित्र पाम्पा नदी में स्न्नान करते है और १८ पवित्र सीढ़िया चढ़ते हुए भगवान अयप्पा के धर्मस्थल की झलक पाने की अभिलाषा रखते है। 


मन्दिर परिसर में स्थित उपदेवता 

कन्नीमूल गणपति

कन्नीमूल गणपति को अयप्पा के मन्दिर के श्रीकोविल (गर्भगृह) के निकट ही स्थापित किया गया है। भक्त टूटे हुए घी नारियल का भाग श्री गणपति को अग्नि में चढ़ाते है। गणपति होम मुख्य प्रसाद है।  

नागराजव 

नागराज को अयप्पा के मन्दिर के श्रीकोविल (गर्भगृह) के बाहर स्थापित किया गया है। तीर्थ यात्री भगवान अयप्पा और कन्नीमूल गणपति के दर्शन के बाद नागराज को भोग लगाते है। 

वावरुनदा 

मुस्लिम संत वावर, जिन्हे वावरुस्वामी के नाम से भी जाना जाता है अयप्पा के भक्त थे। वावरुस्वामी को समर्पित एक मंदिर है। एरुमेली में वावरुस्वामी की एक मस्जिद, मन्दिर संस्था के निकट में ही स्थित है। जहां सबरीमाला तीर्थ यात्रा के समय अत्याधिक महत्त्व रखती है। 


मालिकापुरथम्मा

मालिकापुरथम्मा सबरीमाला मंदिर में सबसे महत्वपूर्ण उपदेवता है। मालिकापुरथम्मा के विषय में दो मान्यताये है - पहली की महिषी के हरने के बाद उसके शरीर से एक सुन्दर महिला निकली जिसने अयप्पा से वरदान में उनके ही साथ रहने की अभिलाषा व्यक्त की। वही दूसरी मान्यता के अनुसार, अयप्पा के गुरु की पुत्री सन्यासी बन गयी और वे अयप्पा के साथ ही निवास करना चाहती थी। तीर्थयात्रियों को मालिकपुरथम्मा की आदि पराशक्ति के रूप में पूजा जाता है। मुख्य प्रसाद के स्वरुप में हल्दी, केसर पाउडर, झगरी, मधु, केला और लाल रेशम दिया जाता है। मालिकापुरथम्मा की मूर्ति की स्थापना ब्रम्हार्षि कन्दरारु महेश्वरु थंथरी द्वारा की गयी थी। देवी की मूर्ति शंख, चक्र और वरद मुद्रा के साथ है। मन्दिर को पुर्ननिर्माण के बाद सोने से ढक दिया गया है। 

करुप्पु स्वामी और करुप्पई अम्मा 

करुप्पु स्वामी का मन्दिर पथिनतमपदी ( पवित्र १८ सीढिया )के दाई ओर स्थित है और करुप्पई अम्मा की मूर्ति उन्ही के ही बगल में शामिल है। दोनों ही वन में रहते थे और उन्होंने उनके दिव्य उद्देश्य में उनकी सहायता की थी। 

वालिया कड़ुथा स्वामी 

वालिया कड़ुथा स्वामी का छोटा सा मन्दिर पथिनतमपदी ( पवित्र १८ सीढिया )के दाई ओर स्थित है। माना जाता है, वालिया कड़ुथा स्वामी भगवान अयप्पा के सेवक थे। वालिया कड़ुथा स्वामी और करुप्पु स्वामी भगवान अयप्पा के रक्षक रूप में भी पूजे जाते है।   

सबरीमाला मन्दिर में की जाने वाली पूजा व विशेष पूजा 

मन्दिर प्रत्येक मलयालम महीने के पहले ५ दिनों के लिए भगवान अयप्पा के दर्शन के लिए खुला रहता है। मन्दिर में प्रातःकाल ३ बजे से ही निर्मालयम अभिषेक के साथ ही अनुष्ठान का प्रारम्भ हो जाता है। तत्पश्चात ३:३० बजे गणेश होम, ३:३० बजे से ७:०० तक नेय्याभिषेकम किया जाता है। उषा पूजा का आयोजन प्रातः ७:३० बजे होने के बाद पुनः ८:३० बजे से ११ :०० तक नेय्याभिषेकम किया जाता है। अष्टाभिषेकम जो की ११:०० बजे प्रारम्भ होकर ११:३० बजे तक चलता है। गर्भगृह को देवता के विश्राम के लिए अपराह्न १:०० बजे बंद किये जाने के पूर्व उच्च पूजा का आयोजन १२:३० बजे किया जाता है। मन्दिर के गर्भगृह को पुनः दर्शन के लिए ३:०० बजे अपराह्न खोला जाता है। मन्दिर में सायंकाल की आरती जिसे दीपराधना के नाम से भी जाना जाता है सायं ६:३० बजे की जाती है। सायं ७:०० बजे से ९:३० बजे तक पुष्पाभिषेक किये जाने का नियम है। अथाझा पूजा भगवान को दी जाने वाली पूजा ९:३० बजे की जाती है। रात्रि ११:०० बजे रात्रि विश्राम के लिए मन्दिर का गर्भगृह के द्वार बंद किये जाते है। 

भगवान अयप्पा सबरीमाला मन्दिर के अधिष्ठाता

भगवान अय्यपा की कृपा प्राप्त करने के लिए कुछ अर्चना,अभिषेक और विशेष पूजा का प्रावधान किया जाता है, जो भक्तों की इच्छाओ को पूरा होने में उनकी आध्यात्मिक व मानसिक भाव प्रदान करने में सक्षम होताहै। विशेष पूजा के रूप में देवता को निम्न प्रकार से सेवा देने का प्रावधान है -

नेय्याभिषेकम

नेय्याभिषेकम भगवान अयप्पा को दी जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण सेवा है। इसमें घी से भरे हुए नारियल का प्रयोग किया जाता है। घी के अभिषेक के माध्यम से आत्मा को परमात्मा में विलय किया जा सकता है इसी मान्यतानुसार घी को मानव आत्मा का प्रतीक और अयप्पा को परमात्मा का प्रतीक माना जाता है। भगवान अयप्पा और उप प्रतिष्ठाओं के दर्शन करने के बाद, तीर्थयात्रियों का समूह सबसे वरिष्ठ तीर्थयात्री के मार्गदर्शन में एक विरी ( भूमि पर एक चादर ) का निर्माण करते है। वे सभी घी से भरे नारियल को एकत्र करते है और विरि पर व्यवस्थित करते है। 

भस्मकुलम, सन्निधानम के पीछे स्थित जलकुण्ड में स्न्नान करने के पश्च्यात गुरु स्वामी गहि से भरें सभी नारियलों को तोड़ कर घी को एक पात्र में एकत्र कर लिया जाता है। नेय्याभिषेकम के पश्च्यात पुजारी द्वारा भक्तों को दिव्य प्रसाद के रूप में बचा हुआ घी दिया जाता है। यदि आप घी से भरा हुआ नारियल नहीं ला पाए है तो तनिक भी परेशान न होए।  देवस्वोम बोर्ड द्वारा आदिशिष्टम नेयू प्राप्त करने की सुविधा भी प्रदान की गयी है। 

चूंकि घी को मानव आत्मा का प्रतीक रूप में माना जाता है तो एक बार नारियल से घी निकल जाने के बाद नारियल को मृत शरीर के रूप में देखा जाता है।  इसी कारण से नारियल को पुनः मन्दिर के सामने विशाल अग्नि-स्थल में अर्पित कर दिया जाता है। 

पाड़ी पूजा 

भगवान अयप्पा सबरीमाला मन्दिर के अधिष्ठाता
पाडी पूजा १८ पवित्र चरणों की पूजा है। जिन्हे पथिनतमपदी या पुष्पभिस्कहम नामक मूर्ति के पुष्प स्न्नान के बाद चुनिंदा दिनों में आयोजित किया जाता है। जिसका आयोजन पुजारी की उपस्थिति में सायंकाल में किया जाता है। प्रत्येक चरण में दीप जला कर उसें  फूलो और रेशमी वस्त्रों से सजाकर एक घंटे तक पुजारी द्वारा आरती करके आयोजित किया जाता है। 

उदयस्थमान पूजा 

उदयस्थमाया का शाब्दिक अर्थ है सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय। उदयस्थमान पूजा देवता को दी जाने वाली वो सेवा है जो निर्मालयम अभिषेक से लेकर अथाझा पूजा तक की जाती है। इस काल में कुल १८ पूजा अनुष्ठानो में से १५ पूजा प्रातः से दोपहर देवता के विश्राम तक सेवा के रूप में की जाती है। 

सहस्त्रकलासम 

तांत्रिक,वैदिक और आगम शास्त्रोंक्त धर्मशास्त्र को दी जाने वाली एक भेंट है। जिसमें सभी पवित्र व अमूल्य पत्थर, सप्त समुद्रों और नदियों के रूप में पवित्र स्वर्ण, चांदी और ताम्बे के कलशों या पात्रों में प्रयोग करने का प्रयास मात्र है। 

उल्सावबली 

उल्सावबली की रस्में वार्षिक उत्सव के दौरान उल्सावा बाली भूतगणम, जो की पीठासीन देवता अयप्पा के सहयोगी के रूप में पूजित है, को समर्पित सेवा है। जिसमे जल जो की उन्हें आमंत्रित करने के  प्रयोग किया जाता है। फिर मन्दिर तंत्री ( मुख्य पुजारी ) नालंबलम और बालिक्कलपुरा के आसपास भूतगनम के बालिक्कलु को ढकने के लिए कच्चे चावल जिसे उल्सवा बाली थूवाल के नाम से जाना जाता है का छिड़काव प्रारम्भ होता है। जब सप्त मातृकाओं पर चावल का छिड़काव पूरा हो जाता है, तत्पश्यात पीठासीन देवता के थिदंबू को भक्तो के दर्शन के लिए उनके गर्भगृह से बाहर लाया जाता है। 

पुष्पाभिषेक 

नाम के अनुरूप इस सेवा में भगवान अयप्पा का पुष्पों से जिसमें तमारा ( कमल ), जमांथी ( गुलदाउदी ), अरली, तुलसी और मुल्ला ( चमेली ), और बिल्व पत्रों से अभिषेक किया जाता है। यदि आप भी इस सेवा का हिस्सा बनने के इक्छुक है तो इसके लिए आप को पहले से ही बुकिंग करनी होगी जिसका शुल्क १००००/- रु के लगभग लिया जाता है। 

अष्टाभिषेकम 

अष्टाभिषेकम भगवान अयप्पा को समर्पित किये जाने वाले प्रसादों में से सबसे महत्वपूर्ण प्रसाद है। जिसमे आठ प्रकार की वस्तुएं विभूति, दूध, मधु, पंचामृत, नारियल पानी, चन्दन, गुलाबजल और पानी का प्रयोग मुख्य पुजारी के द्वारा किया जाता है। 

कलाभाभिषेक 

कलाभाभिषेक भगवान अयप्पा की पूजा का सबसे महत्वपूर्ण भाग है जिसमें भगवान अयप्पा पर चन्दन लेप डालकर अनुष्ठान के समापन को चिन्हित किया जाता है। श्री कोविल के चारों ओर कलाभाभिषेकम के लिए चन्दन के लेप वाले स्वर्ण कलश को लेकर जुलुस निकला जाता है तत्पश्यात मुख्य पुजारी उस कलश से भगवान अयप्पा की पूजा करते है। 

लक्षरचना 

लक्ष का अर्थ है अर्चना अथार्थ दिव्य नाम का जप करना और लक्ष का अर्थ है लाख। देवता से सम्बन्धित मन्त्र का जप करके इस सेवा को किया जाता है।  

तीर्थयात्रा का कठोर नियम 

तीर्थयात्रीयों के लिए आवश्यक है की वे तीर्थयात्रा के पूर्व पवित्र व्रत का पालन करे जिसकी अवधि ४१ दिन की होती है। इसमें तुलसी या रुद्राक्ष की बनी माला पहनी जाती है और ४१ दिन तक शाकाहारी भोजन और व्रत नियमों, जिसमें ब्रह्मचर्य का पालन, क्रोध पर नियंत्रण के साथ ही साथ सभी में अयप्पा का अनुभव करते हुए जरूररत मंद की मदद करना तथा शुद्धता का ध्यान रखते हुए केवल गहरे नीले अथवा काले वस्त्र पहनने का सख्ती से पालन किया जाता है। पथिनतमपदी या १८ मुख्य सीढिया मंदिर की मुख्य सीढ़ी है। परम्परा के अनुसार, "इरुमुदिककेट्टु" या ४१ दिन तक किये जाने वाले व्रत के साथ ही इन तीर्थयात्रियो को इस पर से जाने की अनुमति होती है अन्य के प्रवेश के लिए उत्तरी द्वार को खोला जाता है। 


भगवान अयप्पा सबरीमाला मन्दिर के अधिष्ठाता
Image Source - Google image by - नवभारत टाइम्स 

लाखों की संख्या में आज भी तीर्थयात्री भगवान अय्यपा के द्वारा लिए गए वन मार्ग ( एरुमेली से पारम्परिक वन पथ, लगभग ६१ किमी ) का मार्ग का ही अनुसरण करते है। निलक्कल महादेव मन्दिर जिसे सबरीमाला का द्वार भी कहा जाता है तक लोग वाहन से जाना भी पसन्द करता है उसके बाद वे वन पथ का ही अनुसरण करते है। पल्लापल्ली से चढाई का प्रारम्भ होता है अंगमुझि और मुझियार से होता हुआ सबरीगिरि मार्ग पर समाप्त होता है।   

सबरीमाला मन्दिर में करने योग्य और न करने योग्य कार्य 

करने योग्य 

  • चढाई के दौरान रूक रूक कर ही चढाई करें। 
  • सन्निधानम तक पहुंचने के लिए आप परम्परिक मार्ग - मराकुट्टम, सरमकुथी, नदपंथल का ही उपयोग करें। 
  • नियमों का पालन करते हुए ट्रैकिंग मार्ग को साफ रखने में सहयोग करें।  
  • भीड़ की स्थिति की जानकारी करने के बाद ही पम्पा से सन्निधानम की ओर यात्रा करें। 
  • किसी भी प्रकार का देवस्वोम का भुगतान निर्धारित काउंटर पर ही करे और उसकी पावती को अपने पास ही रखें। 
  • किसी भी प्रकार की सुरक्षा जांच के लिए सहयोग करे तथा किसी भी प्रकार की मदद के लिए प्रशासन के व्यक्तियों अथवा पुलिस की सहायता लें। 
  • समूहों अथवा मित्रों और परिवार से बिछड़ने की स्थिति में सहायता चौकी पर सम्पर्क करें। 

न करने योग्य 

  • मन्दिर परिसर में मोबाइल का प्रयोग न करें। 
  • पम्पा से सन्निधानम के मार्ग पर किसी भी प्रकार का धूम्रपान व नशा करना वर्जित है अतः उसका पालन करें। 
  • कतार से बाहर निकल कर दर्शन की जल्दी न करें। 
  • पथिनतमपदी पर इधर उधर नारियल न फोड़े तथा इस पर चढ़ते समय घुटने न टेके। 
  • सन्निधानम में रसोई गैस तथा चूल्हे का उपयोग न करें। 
  • चूंकि यह क्षेत्र पेरियार टाइगर रिजर्व के अंदर स्थित है। अतः भक्तों द्वारा फेका गया कचरा व प्लास्टिक वन्य जीवों और प्रकृति के लिए खतरा हो। उन्हें यत्र तत्र न फेंके। 
देवतुल्य पम्पा नदी में स्न्नान करते समय साबुन और तेल का प्रयोग पूर्णतय निषेद है। अतः ऐसा करने से बचे।
भगवान अयप्पा सबरीमाला मन्दिर के अधिष्ठाता
Image Source - Google image by - eSamskriti.com 

सबरीमाला मन्दिर तक कैसे पहुंचे ?

सड़क मार्ग से 

सबरीमाला मन्दिर जाने के लिए मुख्य मार्ग पथानामथिट्टा-पम्पा है, जो मन्नारकुलंजी, वडासेरिकारा, पेरुनाड, लहाई और नीलकक्ल से होकर गुजरती है। के एस आर टी सी ( केरल राज्य सड़क परिवहन निगम ) ने तीर्थयात्रियों लिए पथानामथिट्टा, कोट्टायम, कोयंबटूर, पलानी, एर्णाकुलम, कुमली और थेनकासी से नियमित बस सेवायें संचालित की जाती है। जिसके द्वारा आप सबरीमाला मन्दिर बड़ी ही सुगमता से पहुँच सकते है। 

रेल मार्ग से 

चेंगन्नूर और कोट्टायम रेलवे स्टेशन से पम्पा के लिए सीधी बस सेवा का संचालन किया जाता है। जिसकी सहायता से आप सबरीमाला मन्दिर पहुँच सकते है। 

हवाई मार्ग से 

सबसे निकटतम हवाई अड्डा तिरुवनंतपुरम का है जहाँ से दर्शन के लिए आने वाले तीर्थयात्री सड़क मार्ग से सबरीमाला मन्दिर तक पहुँच सकते है। 

सबरीमाला मन्दिर और महिलाओं के प्रवेश को लेकर जारी विवाद 

मन्दिर प्रबंधन के द्वारा १० वर्ष से ५० वर्ष तक की आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा है। यह नियम देवता की ब्रह्मचारी प्रकृति का सम्मान करते हुए बनाया गया है परन्तु ५० वर्ष के कम आयु की महिला तीर्थयात्री को मंदिर परिसर में प्रवेश की अनुमति है जो अपने छोटे शिशुओं के अन्न प्रासन्न के लिए आती है। 

सितम्बर २०१८, में आये हुए एक फैसले में जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित एक न्यायिक बेंच (४ पुरुष और एक महिला अधिकारी ) शामिल थे, महिला अधिकारी द्वारा असहमति ( एक आवश्यक धार्मिक प्रथा क्या तय करती है, यह धार्मिक समुदाय को तय करना है न कि ऐसा मामला अदालतों द्वारा तय किया जाना चाहिए ) प्रस्तुत करने के बाद महिलाओं को प्रवेश की अनुमति प्राप्त हुई किन्तु इस पर मन्दिर प्रशासन द्वारा सहमति नहीं प्रदान की गयी। 

अक्टूबर २०१८ में मासिक धर्म की दो महिलाओं ने मन्दिर में जबरदस्ती प्रवेश करने का प्रयास किया लेकिन उन्हें १०० मीटर की ही दूरी पर रोक दिया गया जब उन्होंने पवित्र सीढ़ियों पर चढ़ने का प्रयास किया तो तंत्री ने गर्भगृह बंद करने की धमकी पर तो वो वापस लौट गयी। 

दिसम्बर २०१८ में २६वें दिवस पर भक्तों ने मन्दिर में युवतियों के प्रवेश के विरोध में केरल, कर्नाटक में लगभग ७६५ किमी की दूरी तय करते हुए अयप्पा ज्योति जलाई गयी। जिसमे कन्नूर में प्रदर्शनकारियों पर हमला भी किया गया जिसमे १४०० अज्ञात लोगो के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। 

जनवरी २०१९, २ दूसरे दिन को सुबह ३:४५ बजे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पहली बार दो महिलाओं को पुलिस संरक्षण में मन्दिर परिसर में लाया गया। जिसकी पुष्टि तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा की गयी। इसके बाद मंदिर को शुद्ध करने के उद्देश्य से एक घंटे के लिए बंद कर दिया गया था। 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ