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सारंगपानी मन्दिर कुम्भकोणम : द्रविण वास्तुशैली का उत्कृष्ट उदाहरण

सारंगपानी मन्दिर, अति सुन्दर व दुर्लभ प्राचीन मन्दिर है, जो भगवान विष्णु को समर्पित है। सारंगम जिसका अर्थ है "विष्णु का धनुष" और पानी का अर्थ है "हाथ"। सारंगपानी मन्दिर, भारत में भगवान विष्णु को समर्पित १०८ दिव्य देशम (पवित्र मंदिरों) में से एक है। माना जाता है, १२ संत जिन्हें अलवर कहा जाता हैं, ने सारंगपानी मन्दिर का उल्लेख दिव्य प्रबंधम नामक अपनी रचना के अनेक छंदों में किया है। स्थानीय लोगो द्वारा इसे पवित्र कावेरी नदी के तट पर स्थित पंचरंगा क्षेत्रम के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है की कावेरी के जल में स्नान कर भगवान विष्णु की पूजा करने से सभी पाप धुल जाते है।

 

सारंगपानी मन्दिर कुम्भकोणम : द्रविण वास्तुशैली का उत्कृष्ट उदाहरण
विग्रह सारंगपानी मन्दिर
यह मन्दिर उस पौराणिक कथा को दर्शाता है जिसके अनुसार, एक बार महर्षि भृगु भगवान श्रीहरी से मिलने उनके निवास स्थान क्षीर सागर पहुँचे। भगवान विष्णु उस समय योगनिंद्रा में लीन थे और उन्होंने महर्षि की तरफ देखा नहीं, कुपित ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्ष स्थल पर अपने चरण से प्रहार किया। जिससे कुपित होकर भगवान विष्णु के वक्ष स्थल में निवास करने वाली भगवती महालक्ष्मी ने वैकुण्ठ को छोड़कर पृथ्वी पर पद्मावती के रूप में निवास करने लगी। अधिक दिन तक देवी का वियोग सहन न कर पाने के कारण भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर प्रकट होकर उनसे विवाह कर लिया। देवी को जैसे ही पूर्व का ज्ञान आया, भगवान विष्णु को देखकर उन्हें पुनः उन पर क्रोध जागृत हो आया। जिससे बचने भगवान विष्णु भूमिगत कक्ष में पाताल श्रीनिवास के रूप में निवास करने लगे। महर्षि भृगु को  अपने किये पर पश्च्याताप हुआ और उन्होंने महादेवी से क्षमा प्रार्थना की तथा अनुनयविनय कर उन्हें पुत्री रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया। महर्षि भृगु ने पुनः ऋषि हेमर्षि के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया। ऋषि हेमर्षि द्वारा देवी लक्ष्मी को पुत्री रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा से तप किया गया। प्रसन्न होने पर भगवान विष्णु ने सारंगपानि रूप में प्रकट होकर ऋषि को उनका मनवाँछित वरदान प्रदान किया। पोट्र्रामराई जलकुंड पर सहस्त्रो कमल पुष्पों के मध्य देवी लक्ष्मी का अवतरण हुआ तथा उनका नाम कोमलवल्ली (कमल से प्रकट होने वाली), जिनसे पुनः भगवान विष्णु ने विवाह किया। 


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सारंगपानी मन्दिर शहर का सबसे ऊँचा मन्दिर टाँवर है। मन्दिर परिसर चारो तरफ से ऊँची-ऊँची विशाल ग्रेनाइट दीवारों से घिरा हुआ है। इस मंदिर की मुख्य विशेषता इसका गोपुरम (प्रवेश द्वार) है, राजगोपुरम (मुख्य गोपुरम), जो की ११ स्तरों में बनाया गया है। जिसकी ऊंचाई लगभग १७३ फीट है। प्रत्येक स्तर प्राचीन पौराणिक कथाओं को दर्शाने वाली आकृतियों से सुशोभित हैं। केंद्र में स्थित मन्दिर, हाथियों और घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले एक रथ के रूप में है। जो दोनों ओर से खुला हुआ है। मन्दिर के पश्चिमी भाग में ऋषि हेमर्षि की मूर्ति है। केंद्रीय मन्दिर का गर्भगृह १०० स्तम्भों वाले मण्डप कक्ष के मध्य में आता है। मंदिर में स्थित सारंगपानी की मूर्ति पल्लीकोण्डा मुद्रा में स्थापित की गयी है। जो अपने दाहिने हाथ पर अपना सर टिकाये हुए लेटे हुए है। गर्भगृह में प्रवेश के लिए दो चरणबद्ध प्रवेश द्वार है। जिन्हें ६ माह के लिए खोला जाता है। प्रथम द्वार उथारायण वासल १५ जनवरी से १५ जुलाई की अवधि में खोला जाता है, जबकि द्वितीय द्वार धक्षनयण वासल को अगले अर्धवर्ष के लिए खोला जाता है। पोट्र्रामराई जलकुंड के मध्य में हेमर्षि मंडपम नाम का केंद्रीय हाल है। मन्दिर में राजगोपुरम के बाहर लकड़ी के बने दो जुलुस रथ है। जिसे बर्ह्मोत्सव व रत्न सप्तमी त्योहारों के दौरान मन्दिर परिसर के आसपास भक्तों द्वारा खींचा जाता है। 

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मन्दिर में पूजा व दर्शन का समय प्रतिदिन प्रातः ६ बजे से अपराह्न १२:३० बजे तक व सायं ४ बजे से रात्रि ९:३ बजे तक खुला रहता है। मन्दिर के मुख्य उत्सव अक्षय तृतीया (हिन्दू महीने के अनुसार वैशाख माह), चिथिरई(देवी मीनाक्षी को समर्पित तमिल माह चित्तिराई में मनाया जाता है), उरियादि उत्सव (कृष्ण जयन्ती के अवसर), नवरात्रि, दीपावली, पोंगल और मासि मगम है।  


यदि आप मन्दिर दर्शन की योजना बना रहे है तो सितम्बर से फरवरी का माह जिसमें मंदिर के सभी मुख्य पर्वोत्सव का आयोजन होता है, सबसे अनुकूल समय होगा। मंदिर शहर से मात्र २ किमी की दूरी पर स्थित है अतः आप टैक्सी, ऑटो के द्वारा सुगमता से मन्दिर दर्शन हेतु पहुँच सकते है। 


 

फोटो गैलरी 
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