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कपालीश्वरर मन्दिर चेन्नई

विश्व का ३१वां सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र, चेन्नई जो ब्रिटिश शासन के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, भारत देश के सबसे प्राचीन शहरों में से एक है। जिसके चमचमाते समुद्रतट, संग्रहालय और दर्शनीय देवस्थान यहाँ आने वाले हर पर्यटक को अपनी ओर आकर्षित करता है। परन्तु चेन्नई का एक जिला मायलापुर, जिसका इतिहास पहली शताब्दी से भी पूर्व का है, चेन्नई से भी प्राचीन नगरों की श्रृंख्ला में आरक्षित है। कपालीश्वरर मन्दिर, मायलापुर में स्थित एक हिन्दू मन्दिर है, जो भगवान सदाशिव और देवी पार्वती को समर्पित है। मन्दिर का इतिहास ७वीं और १६वीं शताब्दी का है। यह स्थान अपने इतिहास, स्थापत्य शैली और आधात्मिक्ता के लिए विश्व चर्चित है, जिसे भगवान शिव-पार्वती के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की पूजा के लिए बनाया गया था। 

कपालीश्वरर मन्दिर

यहाँ पर पूजित शिव लिंगम पूरे विश्व के ६४ स्वयंभू शिवलिंगो में से एक है। कपालीश्वरर जो दो शब्दों कपाल और ईश्वर से मिल कर बना है जिसका मतलब है भगवान शिव व देवी करपगंबल (देवी पार्वती) (करपगंबल जिसका अर्थ तमिल में "इच्छा देने वाले पेड़ की देवी" है) यहाँ के मुख्य पीठासीन देवता है, इसके अतिरिक्त नताना विनायकर, पलानी अंदावर, वायिलर नयनार, सिंगारा वेलार, दक्षिणामूर्ति, सोमस्कंदर और दुर्गाई के अन्य कई मन्दिर है। 

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मन्दिर का इतिहास 

प्रारम्भ में मन्दिर का निर्माण पल्लव शासकों द्वारा ७वीं शताब्दी में समुद्र तट के समीप कराया गया था। १५६६ ई में पुर्तगालियों द्वारा इसके विध्वंस के बाद १६वी शताब्दी में विजय नगर के राजाओं और तुलुवा राजवंश द्वारा द्रविण शैली में इसका पुनर्निर्माण कराया गया। मन्दिर के अन्दर १२वीं शताब्दी का एक शिलालेख संरक्षित है जो इसकी ऐतिहासिक पहचान  के प्रमाण के रूप में कार्य करता है। 


मन्दिर से जुड़ी दंतकथाएं 

इस स्थान से जुडी कई दंतकथाएं है जिनसे इस स्थान का यह नाम क्यों पड़ा? ज्ञात होता हैं -

देवी उमा पंचाक्षर मन्त्र "ॐ नम: शिवाय" का अर्थ जानना चाहती थी, जिसके लिए उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की वे उन्हें पवित्र राख के महत्त्व के साथ साथ दिव्य मन्त्र का सही सही अर्थ सिखाने की कृपा करे। भगवान शिव ने उनका अनुरोध मान लिया और जब वह सिखा रहे थे उस समय वही पर नृत्य कर रही एक मोरनी को देख कर देवी उमा का ध्यान विचलित हो गया। जिससे क्रोधित होकर भगवान शिव ने उन्हें मोरनी बनने का श्राप दे दिया। श्राप मोचन के लिए देवी ने धरती पर आकर तपस्या की। यहाँ देवी ने पुन्नई के वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने देवी को श्राप से मुक्त कर उनका मूल रूप उन्हें प्रदान कर दिया। देवी ने इस स्थान पर मोर रूप में तपस्या की थी इस लिए इस स्थान का नाम मायलापुर (मोर का निवास स्थान) पड़ा। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार, ब्रम्हा जी जिनके भी पांच शीश थे, अहंकार की उत्पति होने से अपने आपको भगवान शिव से भी उच्च मानने लगे उनके दर्प का अंत कर उन्हें पुनः विनम्र बनाने के लिए भगवान शिव ने उनका  एक शीश को काट कर स्वयं धारण कर लिया। यह घटना इसी स्थान पर घटित हुई थी इस लिए इस स्थान पर भगवान शिव को कपालेश्वर के नाम से पूजा जाता है। 


एक कथा के अनुसार भगवान शिव के पुत्र व देवताओं के सेनापति मुरुगन (कार्तिकेय) ने ऐसी स्थान पर राक्षस के वध के लिए भाला (शक्ति वेळ) प्राप्त किया था, इसलिए इस स्थान का नाम मायलापुर पड़ा। इस स्थान को वेदपुरी के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि चारो वेदो ने ऐसी स्थान पर भगवान शिव की स्तुति की थी। दैत्यगुरु शुक्राचार्य द्वारा अपने नेत्र को पाने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की थी, इसलिए इस स्थान को सुकरपुरी के नाम से भी जाना जाता है। 


मन्दिर की वास्तुकला 

मन्दिर गोपुरम
मन्दिर की वास्तुकला आने वाले प्रत्येक तीर्थयात्री को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह मन्दिर विश्वकर्मा स्थापत्य शैली का जीवंत उदाहरण है। मंदिर के चिन्हित प्रवेश द्वार, पूर्व और पश्चिम दोनों ही गोपुरम सुन्दर पौराणिक कलाकृतियों से शोभित है। पूर्वी गोपुरम लगभग ४० मीटर ऊँचा है, जबकि पश्चिमी गोपुरम पवित्र जलकुंड की ओर है। देवी करपगंबल के मन्दिर के सामने एक शेर की सुन्दर मूर्ति स्थित है। मन्दिर में नन्दी, अधिकारनन्दी, हाथी, बंधीकूट, मोर, तोता आदि की मुर्तिया हैं। मन्दिर में अभी जल्दी ही एक रथ की स्थापना की गयी है, जिसमें मुख्य देवता और देवी करपगंबल को बैठा कर भक्तों द्वारा मन्दिर के चारो ओर घुमाया जाता है। 

पश्चिम में स्थित जलकुंड, कपालेश्वर या मायलापुरम जलाशय कुंड के रूप में जाना जाता है।  यह शहर के सबसे पुराने और सुव्यवस्थित थेप्पकुलम में से एक है। जिसकी लम्बाई व चौड़ाई लगभग १९० मीटर व १४३ मीटर है, इसकी भंडारण क्षमता ११९००० घन मीटर है जिसमे पुरे वर्ष पानी रहता है।  

मन्दिर में पूजा का समय व मुख्य पर्वोत्सव

मन्दिर, सोमवार को छोड़कर प्रतिदिन प्रातः ५ बजे से अपराह्न १२ बजे तक व सायं ५ बजे से रात्रि ९ बजे तक खुला रहता है, जिसमें ६ प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान किये जाते है। प्रातः ६ बजे - उषाथकलम, प्रातः ९ बजे - कलासंथी, १ बजे अपराह्न - उचीकलम, सायं ५ बजे - सयाराक्षई, सायं ७ बजे - इरादमकलाम और रात्रि ९ बजे - अर्धजमाम प्रत्येक अनुष्ठान के ४ चरण होते है - अभिषेक (स्नान), अलंगरम (श्रृंगार), निवेथानम (नैवेद्य अर्पण) और दीपा अरदानई (आरती)। 


मन्दिर में मनाये जाने वाले मुख्य पर्व - सोमवरम और सुकरवरम जैसे साप्तहिक अनुष्ठान है, पाक्षिक अनुष्ठान (प्रदोष) तथा मासिक अनुष्ठान अमावसई, किरूथीगई और साथुरथी है। शुक्रवार को देवी करपगंबल की पूजा के दौरान सोने के सिक्कों से बनी कासु माला पहनाई जाती है। जिसका दर्शन अपने में एक अद्भुत संयोग है। 


मन्दिर का मुख्य वार्षिक उत्सव मार्च के मध्य से अप्रैल के मध्य (हिंदी कैलेंडर के अनुसार फाल्गुन माह) मंध मनाया जाने वाला ब्रह्मोत्सवम(वसंत उत्सव), जो नौ दिनों तक मनाया जाता है। जिसका प्रारम्भ द्वारारोहणम के साथ होकर तिरुक्कल्यनम ( भगवान कपालेश्वर और देवी करपगंबल के विवाह) के साथ समाप्त होता है। इन नौ दिवसों में मन्दिर में विभिन्न प्रकार की पूजा व कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। 


कपालीश्वरर मन्दिर कैसे पहुँचे?

सड़क मार्ग से

कपालीश्वरर मन्दिर चेन्नई शहर से ८ किमी की दूरी पर है। चेन्नई शहर राष्ट्रीय राजमार्गों के सुनियोजित तंत्र से देश के लगभग सभी हिस्सों से जुड़ा हुआ है। अतः आप सरकारी व निजी बसों द्वारा अथवा टैक्सी व कारके माध्यम से सुगमता से मायलापुरम पहुँच सकते है।

रेल मार्ग से

कपालीश्वरर मन्दिर चेन्नई रेलवे स्टेशन से ८ किमी की दूरी पर है। देश के विभिन्न रेलवे स्टेशनों का एक सुनियोजित तंत्र चेन्नई को देश से जोड़ता है। जहां से आप सरकारी व निजी बसों द्वारा अथवा टैक्सी व कार के माध्यम से सुगमता से मायलापुरम पहुँच सकते है।

हवाई मार्ग से

चेन्नई अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा देश के बेहतरीन और अच्छी तरह से जुड़े हवाई अड्डों में से एक है। यहाँ से मायलापुरम १६ किमी की दूरी पर है। हवाई अड्डे से बाहर निकल कर आप सरकारी व निजी बसों द्वारा अथवा टैक्सी व कार द्वारा सुगमता से मन्दिर पहुँच सकते है।

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